सुख और दुख को परिभाषित करने की कोशिश !

सुख और दुख को परिभाषित किया जाए तो सामान्य तौर पर ऐसा लगता है कि जैसा हम चाहते है ,अपने लिए वो हमें सुख सा लगता है ,और जो हमारी इच्छा के विरुद्ध हो वो दुख का एहसास देता है , लेकिन यह पर्याप्त नही है ! कभी -कभी हम जो सोचते है वैसा नही होता है ,और हमे लगता है कि यह दुख है , लेकिन यह हमारे जीवन को सुखी बनाने के लिए जरूरी होता है !
विचारों का मंथन किया जाए तो सुख और दुख भी नैतिक और अनैतिक होता है ! कुछ पल के लिए हमे जो पाकर सुख की अनुभूति कराता है ,वो हमारे जीवन में दुख को लाने के लिए होता है ,इस प्रकार के सुख अनैतिक सुख है , कुछ दुख हमारे जीवन को सुखी बनाने के लिए होता है, इस प्रकार के दुख नैतिक दुख है ! हम सभी छोटी – छोटी बातों से दुखी हो जाते है, या खुश होकर सुख महसूस करते हैं ! दोनो ही परिस्थितियों में हमें मंथन करना चाहिए क्या जो हमे प्राप्त हो रहा है , अनैतिक सुख है या नैतिक दुख है ! अगर आपके किसी कार्य से नैतिक सुख की अनुभूति होती है तो मान लीजिए आपके कार्य शुभ है ,और अगर आपके कार्य से अनैतिक दुख की अनुभूति होता है तो आपके कार्य अशुभ है ! जब भी कुछ करे तो मंथन जरूर करे जिससे आपका जीवन सार्थक हो सके !
ज्यादातर इस दुनिया की मूल समस्या हमारे विचारों का अनैतिक होना ही है ! जो कुछ भी अनैतिक होकर करते है , उससे प्राप्त हुआ सुख अनैतिक सुख होता है , जो हमारे भविष्य में हमारे और हमारे पीढ़ियों के दुख का कारण बनता है ! लेकिन व्यक्ति अपने चित्त के विकारों के अनुसार जीवन जीता है, इसलिए अपने चित्त को शुद्ध रखने के लिए जो कुछ भी हमारे संस्कृति के अनुसार बताया गया है उसका अनुसरण कर त्याग ,बलिदान और साधना को अपने जीवन में शामिल करना चाहिए ,जिससे व्यक्ति का जीवन परमसुख की ओर आगे बढ़ सके !

संपादक
मिथिलेश सिंह

( नोएडा)

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